बेवा कॉलोनी, करोंद में रह रहे गाड़िया लोहार के 12 परिवार में 40 सदस्य हैं| ये मूल रूप से राजस्थान कोटा के फुटपाथ पर रहने वाले हैं| काली बाई बताती हैं, “हम 50 साल से ही फुटपाथ पे रहते आ रहे हैं| आज़ादी आई जब से ही अलग अलग जगह फुटपाथ पे रहते हैं| पहले डेरा जल्दी जल्दी नहीं तोड़ना रहता था, अब दो-तीन, दो-तीन साल में झुग्गी टूट रही थी| 4 पीड़ी में पहली बार ये दो क्वाटर ख़रीदे हैं| ये क्वाटर गेस काण्ड वालों को मिले थे| दो साल पहले उनसे हमने खरीद लिए|कुल आठ कमरे हैं- दस बाय दस का एक कमरा है|” गाड़िया लोहार के ये परिवार अपने रोज़गार के लिए, पूरा-पूरा परिवार अलग अलग शहरों, राज्यों में जाकर चौराहों पर खिलौने बेचते हैं| चारों पीड़ी में इनके राशन कार्ड कभी नहीं बने| इन में से ज्यादातर लोगों के पास अपने आधार कार्ड हैं, और वोटर कार्ड सिर्फ 2 ही लोगों के पास हैं|
गीता काकी कहती हैं, “हम दो साल से यहाँ रह रहे हैं| अभी भी हमको पड़ोसी, अपना पड़ोसी नहीं मानते हैं|” आस पड़ोस के लोगों का कहना था कि ये कभी रहते हैं, कभी चले जाते हैं| इनका रहन-सहन हम लोगों को समझ में नहीं आता है| आस-पास के लोगों की बातचीत से लग रहा था कि घुमंतू समुदायों के साथ निम्न तबके के लोगों व समाज के बीच की दूरियाँ बरकरार हैं, जिससे छोटी-छोटी सहायता के लिए भी इन समुदायों को भुगतना पड़ता है| ऐसी स्थितियों में जब समाज को एक दूसरे के साथ की ज़रूरत है तब यह दूरियाँ ज्यादा मुश्किल पैदा करती हैं, आदिवासी व घुमंतू समुदायों के लिए खासकर| हालाँकि बेवा कॉलोनी में, सभी वंचित मजदूर तबके के लोग हैं, परन्तु आदिवासी विस्थापित लोगों के प्रति संवेदनहीनता दिखती है|घुमन्तु समुदायों के प्रति यह नज़रिया पूरे समाज में ही व्याप्त है|
डेढ़ माह पूर्व, यह लोग हैदराबाद में खिलौने बेचने (खाने कमाने) गये थे| हाल ही में, 5 मई को, हैदराबाद से इन लोगों को भोपाल वापस पहुँचा दिया गया| पुलिस के कुछ सिपाही इन्हें 3 बजे रात को यहाँ छोड़कर गये| पड़ोसियों को संदेह हुआ कि इतनी रात को क्यों छोड़ा गया, इसलिए आस पास के लोगों ने वायरस के डर में आकर इन लोगों से दूरी बना ली| प्रशासन ने भी इनको छुड़वाने के बाद वापस एक भी समय के भोजन देने तक की सुध नहीं ली| गीता काकी का कहना था, “इस इलाके में तो हमेशा ही पानी की परेशानी है| पहले, जिनके पास मोटर है पानी की, वो लोग, हमें अपने घर से पानी भरवा देते थे| अब कोरोना के डर से आस पास वाले लोग हम लोगों को पानी भरने आने देने से डर रहे हैं|जहाँ खाने को नहीं है, वहाँ हम एक हफ्ते से एक रूपये में एक कुप्पी पानी दूर से खरीद कर लाकर पी रहे हैं|”
काजल ने बताया, “हम खाने के लिए फ़ोन लगाते हैं तो कोई फ़ोन नहीं उठाते| सरकार से हमको एक रुपया का मदद भी नहीं मिली और न हमारी कोई खबर लिए| हमको पूछने भी नहीं आये| हमारी जांच कर के, और हमको कोरोना नहीं है, ये कागज़ दरवाज़े पे लगाके चले गये| हम बोले कि, बेटा सब बंद है, कुछ आटा पानी का इन्तज़ाम करवा देओ| कुछ बोले नहीं, चले गए|”
“हमारे साथ 15 बच्चे हैं| बच्चों को खिलाने की दिक्कत लगती है, बड़े लोग नहीं खायेंगे तो फिर भी जी लेंगे| बच्चा खायेगा नहीं तो कैसे जीएगा? इसके लिए बच्चों के लिए खाना जोड़ के भी रख रहे हैं| इधर खाना, राशन बाँटने कोई नहीं आता है| हम जो कमा कर लाए थे वो खाए और बच्चों के लिए आटा, दाल रखे, इतना खाना नहीं बनाए की बड़े बड़े लोग सारे खा पायें| आगे तक बंद रहेगा तो बच्चों को क्या देंगे… अभी बस बच्चों के लिए खाना बनाते हैं|
अभी जब परेशानी ज्यादा होने लगी खाने की तो, पड़ोस के लोग भी हमारे लिए सहायता मंगवाने को फ़ोन किए अलग अलग जगह की कोई हमको खाना दे जाए|”
लेखा: सबा खान
ईमेल: sabakhansaba786@gmail.com
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