By Brajesh Verma
हम देखते हैं कि हमारा समाज वर्ग, वर्ण और जेंडर के आधार पर पूरी तरह से बँटा हुआ है और समाज में इन अलग-अलग वर्गों के आपसी मेल-मि लाप का कोई ज़रि या भी नहीं है। इसलि ए लोग एक-दूसरे के बारे में जान ही नहीं पाते| हमारी स्कूली व्यवस्था भी इस अलगाव को तोड़ने में कोई मदद नहीं करती। स्कूल में जेंडर के मुद्दों पर बातचीत की बहुत सम्भा वनाएँ हैं किन्तु यहाँ इन मुद्दों पर ज़्या दा चर्चाएँ होती ही नहीं हैं| चूँकि घरों में भी इन मसलों पर बात की कोई गुंजाइश नहीं है, इस कारण बचपन से ही बच्चों में अपने आसपास की दुनि या और दि न प्रतिदि न के अनुभवों की वजह से जेंडर को लेकर अधिक ांशतः नकारात्मक वि चार पनपते रहते हैं| मौजूदा समाज में समलैंगिक ता, थर्ड जेंडर, क्वे र जैसे मुद्दों पर बात करना तो बि लकुल भी उचि त नहीं समझा जाता| बच्चों से इन मसलों को हमेशा छुपाया जाता है| इन सभी कारणों से बच्चों में जेंडर और यौनिक ता के बारे में व्या पक समझ विकसि त नहीं हो पाती, बल्कि इसके वि परीत बहुत-सी भ्रान्ति याँ पैदा हो जाती हैं।
समाज में लड़कों को अलग तरह से तैयार किया जाता है और लड़कियों को अलग तरह से। इन वि षयों पर चर्चा और जानकारी के अभाव में लड़के-लड़की के लि ए ‘तय सामाजिक मापदण्डों’ से ‘अलग तरह से रहने वाले’ लोगों के प्रति बच्चे संवेदनशील नहीं बन पाते और यह क्रम लगातार चलता रहता है|
साहिहि त्य्य मेंें सम्भा्भा वनाएँ
ऐसी स्थिति में जहाँ सामाजिक वि भेद के कारण इन्सा नों की दुनि या में लोग अपने से अलग लोगों व समुदायों से मि ल नहीं पाते, साहि त्य की दुनि या अपने से अलग व्यक्ति यों और समुदायों को समझने और जानने का एक माध्यम बन सकती है| बच्चों को मि लने वाला विवि धतापूर्ण साहि त्य, इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिक ा नि भा सकता है और हम सभी को इस दि शा में संवेदनशील बना सकता है| आम तौर पर बच्चों को राजा- रानी, जंगल और जानवर, परि यों, भूतों आदि की कहानि याँ आसानी-से पढ़ने को मि ल जाती हैं किन्तु समाज के सभी वर्गों की आवाज़ को बराबरी से जगह देने वाले साहि त्य की कमी अक्सर खलती है| जि स तरह की गैरबराबरी हमें समाज में दि खती है, वही चुप्पी हमें साहि त्य में भी दि खाई देती है| हाशि याकृत समुदायों, मुस्लि म, दलि त, वि मुक्त घुमक्कड़ समुदायों के जीवन को उनकी सम्पू र्णता में प्रस्तु त करने वाला साहि त्य हमें वि रले ही देखने को मि लता है| इसी प्रकार समाज के कुछ खास वर्गों जैसे समलैंगिक , किन्नर, क्वे र इत्यादि समुदायों का प्रतिनिधि त्व करने वाला सहि त्य, हमें बाल साहि त्य की दुनि या में दि खाई ही नहीं देता| इस वजह से बच्चे इन समुदायों के बारे में साहि त्य के माध्यम से भी जान नहीं पाते और उनके मन में तरह- तरह की भ्रान्ति याँ घर कर जाती हैं और वे अक्सर जीवन भर इन भ्रान्ति यों से बाहर नहीं निक ल पाते| परन्तु यह भी देखा गया है कि यदि इन मुद्दों पर बच्चों के साथ शुरुआत से ही चर्चा की जाए तो बच्चों की सोच में एक पर्या प्त विस्ता र आ सकता है और वे उन लोगों को भी खुलेपन से स्वीक ार कर सकें गेजो खुद को अपनी सामाजिक पहचान से अलग हटकर महसूस करते हैं और अपनी शर्तों पर जीना चाहते हैं| इस सन्दर्भ में मैं अपने कुछ अनुभव प्रस्तु त कर रहा हूँ।
अलग-सी कहानिनि योंों पर चर्र्चाचा
लाइब्रेरी क्ला स में बच्चों के साथ जेंडर के ढाँचे को तोड़ने के लि ए मैंने इन वि षयों पर आधारि त कुछ कहानि याँ चुनी व पढ़ीं और इन वि षयों पर बच्चों के वि चार जानने की कोशि श की| एकलव्य द्वारा प्रकाशि त रि नचि न की कहानी, ‘अजूबा’ (2018), मुस्कान द्वारा प्रकाशि त कनक शशि की कहानी ‘गुठली कैन फ्ला ए’ (2019) और निरंतर द्वारा प्रकाशि त माया शर्मा की कहानी ‘नवाब से नंदनी’ (2006) जैसी किताबें बच्चों के साथ पढ़कर, उन पर चर्चा की गई| चर्चा में भोपाल शहर की कच्ची बस्ति यों में रहने वाले गोंड, पारधी, ओझा-गोंड और दलि त, कंजर एवं अन्य वि मुक्त जाति यों के बच्चे शामि ल थे जो मुस्कान द्वारा संचालि त स्कूल ‘जीवन शिक्षा पहल’ में नि यमि त रूप से पढ़ने आते हैं| बच्चों की उम्र लगभग 15 से 18 साल के बीच थी| बच्चों के माता-पि ता असंगठि त क्षेत्र में काम करने वाले दि हाड़ी मज़दूर हैं जो गड्ढे खोदने, कचरा बीनने व नगर निग म की कचरा गाड़ी पर काम करते हैं| ये बच्चे अपनी और परि वार की ज़रूरतों को पूरा करने के लि ए पढ़ाई के साथ-साथ सुबह और शाम काम करने भी जाते हैं| कुछ बच्चे कचरा चुनने का काम करते हैं तो कुछ बारात में लाइट पकड़ने का, और कुछ बच्चे शादी-पार्टी में खाना परोसने का काम करते हैं| बच्चे सुबह जल्दी उठकर कचरा बीनने का अपना काम खत्म करके पढ़ाई करने के लि ए मुस्कान स्कूल आ जाते हैं| बच्चों ने इन किताबों को पढ़कर अपने वि चारों और अपने व दोस्त ों के अनुभवों को साझा किया| इस अनुभव से समझ में आया कि मौका मि लने पर उनकी चर्चा, समझ और अनुभव का दायरा कितना व्या पक हो सकता है।
‘अजूबा’ कहानी के किरदार पानी से जुड़ाव बना पाने में बच्चों को थोड़ी मुश्किल आ रही थी, लेकिन फिर भी वे एक व्यक्ति के तौर पर उसे स्वीक ार करने के लि ए तैयार थे|
इस कहानी पर अपनी बात रखते हुए राजा ने कहा, “यह तो समझ आता है कि कोई लड़की, लड़की को पसन्द करती है और कोई लड़का, किसी लड़के को पसन्द करता है| ऐसे कई लोग मैंने अपने आसपास देखे हैं| लेकिन ‘पानी’ तो अलग है, वह लड़के के साथ लड़का और लड़की के साथ लड़की जैसा महसूस करता है। वह लड़का और लड़की, दोनों से प्रेम करता है| थोड़ा अजीब लग रहा है कि ऐसा कैसे हो सकता है| लेकिन पानी समाज को एक सन्दे श दे रहा है कि हमें अपनी इच्छा के अनुसार जीने का हक है| किसी को अपनी तरह से रहने और जीने की मनाही नहीं होनी चाहि ए| लोग ‘पानी’ को ‘पानी’ की तरह रहने से रोकते हैं क्योंकि पानी की वजह से समाज का जेंडर का किला ढहने लगा था| नी समाज की सोच बदलने वाला व्यक्ति है|” वहीं इस वि षय पर मंदीप पवार ने लि खा, “पानी जैसे लोग होंगे तो समाज में बहुत बदलाव होंगे और लोगों की धारणाएँ और पूर्वा ग्रह भी टूटेंगे| पानी बच्चों को सोचने और प्रश्न करने वाला बनाता है| पानी के साथ खेलने से गाँव के बच्चे भी सवाल करने लगे थे, इस बात से भी गाँव के लोग परेशान होने लगे थे| सवाल करने वालों को हमेशा खराब माना जाता है| पानी जैसे लोगों को जीने में बहुत दि क्कत आती है| ये कहानी हि म्मत देती है|”
इस चर्चा में बहुत-से बच्चों ने बढ़- चढ़क र हिस्सा लि या। उनमें से कुछेक की कही बातें आपसे साझा कर रहा हूँ।
• “मुझे कहानी ‘गुठली कैन फ्ला ई’ में यह अच्छा लगा कि गुठली ने अपनी पहचान या वह जैसे रहना चाहती है, को अपनी माँ और घर वालों से डांट खाने के बाद भी नहीं बदला| हम लड़के हों या लड़की, यह ज़्या दा महत्व नहीं रखता, महत्व
यह रखता है कि हम खुद को कैसा मानते हैं, हम क्या महसूस करते हैं, हम अपनी पहचान को खुद कैसे देखते हैं| हर व्यक्ति को समाज में जगह और सम्मा न मि लना चाहि ए|”
– करीना
• “इन्सा न अपनी ज़ि न्दग ी जि स तरह से जीना चाहे, उसे उस तरह से जीने का हक होना चाहि ए, लोग कौन होते हैं किसी की ज़ि न्दग ी के बारे में तय करने वाले| कोई लड़का यदि लड़की की तरह रहना चाहे या कोई लड़की लड़के की तरह रहना चाहे तो उसे वैसे ही रहने का हक है। लेकिन हम देखते हैं कि समाज हर तरह की रोक-टोक करता रहता है| ऐसे कपड़े मत पहनो, ऐसे मत चलो, ऐसे मत बात करो, लड़की हो तो ज़रा धीरे बात करो – ऐसी बातें हर किसी को सुनने को मि लती हैं| हमें समाज में या तो लड़के की तरह रहना होता है या लड़की की तरह, नहीं तो घर और समाज के दरवाज़े हमारे लि ए बन्द हो जाते हैं|”
• “जब तक हम समाज द्वारा बनाए नि यमों को मानते रहेंगे, हम अच्छी लड़की या अच्छा लड़का होंगे किन्तु यदि हम समाज द्वारा बनाए इन नि यमों के बाहर जाकर सोचेंगे, अपने हि साब से अपनी ज़ि न्दग ी जीना चाहेंगे तो हम उसी समय परि वार व समाज के लि ए खराब/ बिग ड़े हो जाएँगे|” इस पर बच्चों ने कहा कि “भले ही समाज हमारा वि रोध करे, लेकिन हमारे परि वार के लोगों को तो हमारा साथ देना चाहि ए|”
• एक लड़की ने कहा, “मेरा एक दोस्त है जो गुठली की ही तरह लड़कियों वाले कपड़े पहनना और सजना चाहता है| वह घर के काम करता है और उसे लड़कियों के साथ खेलना अच्छा लगता है लेकिन उसके पापा उसको बहुत डाँटते हैं, कहते हैं कि ‘समाज में नाक कटवाएगा क्या ?’ वो अकेला उदास रहता है| बस्ती के लोग व उसके दोस्त भी उसे लड़की-लड़की कहकर चि ढ़ाते हैं| कहते हैं, ‘देखो कैसा मटक-मटक कर चलता है, हाथ हि ला-हि ला कर बात करता है| अपने बालों को लड़कियों की तरह गूँथता है, चोटी रखता है’| अब हमें महसूस हो रहा है कि वो खुद को कितना अकेला पाता होगा| उसकी भावनाओं को समझने के लि ए किसी को फुर्स त नहीं| हमें उसका साथ देना चाहि ए और उसको अकेलेपन से बाहर निक ालने के लि ए मदद करनी चाहि ए|”
• नम्रता (परि वर्ति त नाम) का कहना था कि “ऐसा लग रहा था मानो मेरी ही कहानी चल रही हो| जींस, टी-शर्ट पहनने पर मुझे भी लोग कहते हैं कि ‘तू लड़की है, लड़की की तरह सलवार-कुर्ती पहना कर। ये क्या लड़कों की तरह कपड़े पहनकर घूमती है, सि र पर दुपट्टा रखा कर, ये तो समाज में हमारी बदनामी करवाएगी’| इस कहानी को पढ़कर मुझे अपनी बात कहने की हि म्मत आई| बहुत-से लोग हैं जो मेरी तरह सोचते हैं, जो अपनी एक अलग पहचान के साथ जीना
चाहते हैं|”
समाज का बदलना बहुत ही कठि न है, परन्तु मुझे लगता है कि हम इतना तो कर सकते हैं कि गुठली, पानी या नवाब जैसे व्यक्ति अपने आपको जो समझते हैं, उनको वैसा ही समझें। अगर वह लड़का है और लड़की की तरह महसूस करता है तो उसे लड़की ही मानना चाहि ए, और यदि लड़की खुद को लड़के की तरह महसूस कर रही है तो उसे लड़का ही माना जाए, न कि उसे किसी ‘अन्य’ का नाम दे दि या जाए| सघन प्रप्रयासोंों की ज़ज़रूरूरत बच्चों का कहना था कि इस तरह की और कहानि याँ लि खी जानी चाहि ए ताकि लोगों में अपनी भावनाओं को अभि व्यक्त करने की हि म्मत आ पाए और वे अपने तरीके से अपनी ज़ि न्दग ी जी पाने में सक्षम बन पाएँ, अपनी पहचान ज़ो र-से लोगों के सामने बता पाएँ| साथ ही, इससे अन्य लोगों में भी ऐसे लोगों के प्रति सम्मा न का भाव पनपेगा जो समाज द्वारा दी गई पहचान के वि परीत जीना चाहते हैं। समाज में उनके लि ए जगह बनेगी व उनका मज़ाक नहीं उड़ा या जाएगा| बच्चों में सामाजिक नि यमों के प्रति एक तरह का गुस्सा भी दि ख रहा था और कुछ बच्चे इननि यमों को तोड़ देने की बात कह रहे थे|
हम अपने आसपास के समाज में किन्नर समुदाय या समलैंगिक ों के प्रति एक नकारात्मक ता व अस्वीक ार्य ता का भाव देखते हैं| किन्तु ये कहानि याँ सभी को सम्मा न, स्वाभि मान के साथ जीने व बराबरी का स्थान देने की बात कहती हैं|इन्हें बच्चों के साथ पढ़ने और चर्चा के बाद लगता है कि ये कहानि याँ बच्चों में एक नई सोच के दरवाज़े खोलने वाली बेहतरीन कहानि याँ हैं|आम तौर पर समाज में जि न मुद्दों पर संवाद की कोई भी जगह नहीं होती, ये कहानि याँ ऐसे मुद्दों पर संवाद की जगह बनाती हैं और संकुचि त सामाजिक मान्यताओं को कठघरे में खड़ा करती हैं| इस तरह की कहानि याँ समाज के तय ढाँचे से बाहर निक लने व अपनी तरह से ज़ि न्दग ी जीने की आज़ादी की वकालत करती हैं व जेंडर और यौनिक ता के दायरों को तोड़ने का काम करती हैं|
बच्चों के बीच यदि शुरुआत से हीइन मुद्दों पर चर्चा की जाए तो यह उन्हें परि पक्व होने व एक तार्किक सोच वाला इन्सा न बनने में मदद करेगी| जो बच्चे या बड़े खुद को समाज की दी हुई पहचान से हटकर, कुछ अलग महसूस करते हैं, वे खुद को अभि व्यक्त कर पाएँगे और समाज द्वारा बनाई लड़के या लड़की की परि भाषा के तय खाँचे में खुद को ढालने के दबाव से शायद कुछ हद तक बाहर निक ल पाएँगे|
ब्रब्रजेश वर्मार्मा : वर्त मान में मुस्कान संस्था, भोपाल द्वारा संचालि त स्कूल ‘जीवन शिक्षा पहल’ में शि क्षक के रूप में कार्य रत हैं| हशि याकृत समुदाय मुख्यतः दलि त, आदि वासी, वि मुक्त और मुस्लि म समुदायों के बच्चों के साथ सीखने-सि खाने की प्रक्रिया में शामि ल हैं| बच्चों को कहनि याँ सुनाना, उनके साथ खेलना पसन्द है| ई-मेल: brijeshverma3@gmail.com
सभी चिचि त्रत्र: उबिबि ता लीला उन्नीन्नी: डिज़ा इनर व चि त्रकार हैं। इन्हें बच्चों और बच्चों की कहानि यों के साथ काम करना बहुत पसन्द है। वर्त मान में एकलव्य के डिज़ा इन समूह के साथ फैलोशि प के तहत काम कर रही हैं।
Source: https://www.eklavya.in/pdfs/Sandarbh/Sandarbh_139/59-65_Stories_Breaking_the_Genders_Grip.pdf