By ब्रजेश और सविता सोहित
मुस्कान एक गैर सरका री संस्था है जो ‘जीवन शिक्षा पहल’ नामक एक नवाचारी स्कू ल का संचालन कर रही है। यह स्कू ल उन बच्चों के लि ए संचालि त कि या जा रहा है जो विभ िन्न सामाजिक व राजनैतिक का रणों से स्कू ल से छूट रहे हैं।
स्कू ल में आनेवाले बच्चे भोपाल के कोटरा और एमपी नगर की बस्ति यों में रहनेवाले मुख्यतः आदि वासी, दलि त और अति वंचि त समुदायों के हैं। इन बस्ति यों में जरूरत की मूलभूत सविु धाए ँ जैसे— पानी, बि जली, शौचालय भी मुहैया नहीं हैं। लोग शौच के लि ए खुले में जाते हैं। घर कच्चे-पक्के हैं, कहीं पट्टे हैं तो कहीं नहीं हैं। बच्चों के पालक दि हाड़ी मजदूरी या कबाड़ चुनने और अन्य ऐसे धन्धों में जुड़े हैं जो कि उनकी अस्थि र दैनिक कमाई के साधन हैं। दि हाड़ी मजदूरी के लि ए पीठे (लेबर पॉइन्ट) पर जाक र का म की तलाश करना उनकी रोज सुबह की दि नचर् या का हि स्सा है। उन्हें कभ ी का म मि लता है तो कभ ी नहीं मि लता।
स्कूल के लि ए एक अहम सवाल यह रहा है कि वह एक बराबरी और बेहतर समाज के निर् माण में योगदान दे जि समें मेहनत- कशों को उनका स्थान मि ल सके।
इस अस्थायीपन के चलते कई परिवारों के बच्चों के लि ए नि यमि त चलने वाले स्कू लों में पढ़ना मुश्किल होता है। बच्चों का अधिका ँश समय खुद कमाई के जुगाड़ में, अपनी बसाहटों के आस-पास खेलते हुए या घर के का मों, जैसे— पानी भरने, चूल्हे के लि ए लकड़ी ढूँढने, इत्यादि में जाता है। आधे से ज्या दा बच्चे कबाड़ बीनते हैं। बच्चे परिवार की आमदनी में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा ते हैं।
प्रारम्भिक वर्षों में कि ए गए प्रयास
प्रारम्भिक वर्षां में हम बच्चों को बस्ती में ही पढ़ाक र उन्हें मुख्यधारा के स्कू लों के लि ए तैयार करते थे; जब बच्चे अपनी उम्र अनुसार स्कू ली कक्षा के लि ए तैयार हो जाते थे (जि समें बहुत वक्त नहीं लगता था ) तो हम बच्चों का स्कू लों में दाखि ला करवा देते थे। स्कू ल जाए बि ना भी बच्चे एक साल में ही तीसरी और चौथी के स्तर तक की पढ़ाई पूरी कर लेते थे। सरका री और प्राइवेट दोनों ही प्रका र के स्कू लों में बच्चों को दाखि ल कराया गया। स्कू ल में बच्चे खुश और सहज महसूस करें यह सुनिश् चित करने के लि ए मुस्कान और बच्चों के परिवारों की ओर से बहुत कोशिशें की गई। ं
माता-पि ता की ओर से की गई कोशिशों में बच्चों को तैयार करकेस्कू ल भेजना, उनके लि ए टिफ िन तैयार करना, सीमि त आमदनी के बावजूद स्कू ल के खर्चों को पूरा करना शामि ल था । बच्चे मुस्कान के अनौपचारिक केन्द्रों में स्कू ल के पहले या बाद आकर कक्षा की पाठ्यचर् या पूरी करते थे। इन प्रयासों के बावजूद बच्चे स्कू लों से पूरी तरह सहज नहीं हुए थे। स्कू ल जाने की शुरुआती खुशी जल्द ही स्कू ल से भा गने में बदल गई थी। कई बच्चे स्कू ल में टिक नहीं पा रहे थे। जि न स्कू लों में बच्चे टिक रहे था वहाँ बच्चों को स्कू ल से मि ल रहे अनुभव को शिक्षा का नाम देना न तो आसान था और न ही वाजि ब था ।
स्कूलों से दूरी क्यों?
मुस्कान ने अपने स्तर पर बच्चों के स्कू ल नहीं जाने के का रणों को समझा और महसूस कि या। इसके लि ए हमने बच्चों से बातचीत की जि ससे हमें समझ आया कि स्कू ल में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा था जो बच्चों को अपनी ओर आकर्षि त करे। बच्चों के ज्ञान, उनकी भाषा व संस्कृ ति का कक्षा में कोई स्थान नहीं था । बच्चों को कक्षा में चल रही गतिविधि याँ समझ में नहीं आती थीं पर वे डर की वजह से चुप रहते थे। डर की वजह से वे सवाल- जवाब में भी हि स्सा नहीं ले पाते थे।
शिक्षक ों का नका रात्मक रवैया, सहपाठि यों का उपेक्षि त व्यवहार व उपहास इन बच्चों के आत्मसम्मा न पर सीधी चोट करता था जि सकी वजह से वे स्कू ल आने और स्कू ल में रुकने के लि ए प्रोत्साहि त महसूस नहीं करते थे। इन सबके बावजूद भी वे स्कू ल जाने के लि ए अपनी तरफ से भरसक कोशिश करते थे कि न्तु एक दो साल तक स्कू ल जाक र भी बच्चे कुछ सीख नहीं पा रहे थे। ऐसी जगह जो बच्चों को ना तो सीखने के अवसर दे रही हो, ना उन्हें प्रोत्साहि त कर रही हो और ना ही उनके आत्मसम्मा न की रक्षा कर रही हो, बच्चे वहाँ जाने को लेकर भला कैसे उत्सा – हि त हो सकते थे? स्कू ल के अन्दर की विष म परिस्थिति याँ व एक खास पृष्ठभूमि का होने के का रण बच्चों के साथ होने वाला उपेक्षि त व्यवहार उनको स्कू ल के बाहर धकेल देता है। अभी तक इसके बारे में हमने कि ताबों और शोध पत्रों में ही पढ़ा था लेकि न हमारे बच्चों के अनुभवों ने भी हमें इसी सच से रूबरू करवाया।
इन परिस्थिति यों से जूझते हुए हमारे मन में कई सवाल उभर रहे थे, जैसे :
1) अगर बच्चे को स्कू ल से इतने सारे नका रात्मक अनुभव प्राप्त हो रहे हैं तो क्या हम एक व्यवस्था के तौर पर स्कू ल के अस्ति त्व को नका र सकते हैं? क्या हम ये मान सकते हैं कि इस व्यवस्था से बाहर रहना ही बच्चे के जीवन के लि ए बेहतर है?
2) जब वंचि त तबके के बच्चों का एक बड़ा प्रतिश त स्कू लोंमें दाखि ला लेता है और वहाँ उनके साथ दुर्व्य वहार होता है तो शिक्षा में का म करने वाली ससं ्थाओ ंका क्या प्रयास होना चाहि ए?
3) अनौपचारिक शिक्षा बनाम औपचारिक शिक्षा का रास्ता क्या होना चाहि ए? क्या स्कू ली शिक्षा, 10 महीने, 6 घंटे, साल दर साल विष यवार पढ़ाई का मॉडल ही शिक्षा का एकमात्र मॉडल है?
4) क्या स्कू ल के बाहर रहकर शिक्षा प्राप्त की जा सकती है? क्या यह अमल में लाया जा सकता है और क्या यह का म करेगा?
5) वंचि त समुदायों के बच्चों के लि ए कि स प्रका र की शिक्षाउपयोगी होगी?
प्रारम्भिक स्तर पर बच्चों की भाषा व उनके परिवेश के शब्दों का प्रयोग कर लिख ित भाषा से पहच ान कराई जाती है व इस प्रक् रिया में छोटे-छोटे वाक्यों या छोटी कहानि यों का प्रयोग कि या जाता है।
इनमें से कुछ सवालों के जवाब तो हमें मि ले और कुछ के जवाब ढूँढने के लि ए मुस्कान ने जुलाई 2005 से जीवन शिक्षा पहल स्कू ल की शुरुआत की जहाँ हम बच्चों को एक ऐसी शिक्षा देने के लि ए प्रति बद्ध थे जो बच्चों के लि ए न केवल रोजगार उन्मुख हो बल्कि उनमें अपने समुदाय के प्रति गर्व और अपने जीवन के संघर्षों को लेकर समानुभूति की भा वना रखते हुए उन्हें अपने अधिका रों के लि ए आवाज उठाना सि खाए। साथ ही वे समझ के साथ सीखते हुए जीवन में आगे बढ़ सकें ।
स्कू ल के लि ए एक अहम सवाल यह रहा है कि वह एक बराबरी और बेहतर समाज के निर्मा ण में योगदान दे जि समें मेहनतकश ों को उनका स्थान मि ल सके। एक अन्य चुनौती ऐसे पढ़े-लि खे लोगों की खोज रही है जो शिक्षक हों और रचनात्मक ता के साथ कक्षा में इन मूल्यों का समावेश कर सकें । पाठ्यपुस्तक ों के रूप में हमें ऐसी कि ताबों की जरूरत थी जो एक वि वेचनात्मक नजरिया विकसि त करें।
इसके लि ए एनसीईआरटी और एकलव्य की सामाजिक अध्ययन और नागरिक शा स्त्र की पुस्तक ों का इस्तमाल कि या जाता है। हम चर्चाओ ंके माध्यम से महि लाओ ंकी बराबरी से सम्बन्धि त मद्ु दों, विका स के मॉडल, जो गरीब को और गरीब कर रहा है, आदि पर सवाल-जवाब करते हैं। ये चर्चाए ँ फिल्म, बस्ती में अध्ययन और वाद-वि वाद आदि माध्यमों की सहायता से की जाती हैं।
सीखने-सिख ाने के तरीके
यहाँ शिक्षक अपने तरीकों से बच्चों को सि खाने के लि ए स्वतन्त्र हैं। वे शैक्षणिक तरीकों में कुछ बदलाव के साथ अभी भी अर्थपूर्ण शिक्षा के अलग अलग मायने और आयाम खोज ही रहे हैं। सीखने-सि खाने सम्ब न्धी कुछ पहलू इस प्रका र है:
1) स्कू ल में बच्चों को कक्षावार नहीं बाँटा जाता क्योंकि हर बच्चे की सीखने की अपनी गति होती है, कोई बच्चा कि सी विष य को धीरे सीखता है जबकि कोई अन्य बच्चा उसी विष य को तेजी से सीखता है व कि सी अन्य विष य को धीमी गति से सीखता है। स्कू ल में 20-25 बच्चों का एक मिश् रित समूह होता है जि समें शिक्षक सीखने की प्रक् रिया को संचालि त करते हैं और बच्चे की प्रगति का तय मापदण्डों के आधार पर मूल्यांक न करते जाते हैं। बच्चे आत्मवि श्वास के साथ अपने समूहों में सीखते जाते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। औपचारिक स्कू ली कक्षाओ ंमें बच्चों से एक निश् चित व सीमि त पाठ्यक्रम को एक सीमि त अवधि में सीखने की अपेक्षा की जाती है जबकि इन कक्षाओ ंमें बच्चों को अपनी गति से सीखने के अवसर मि ल पाते हैं।
2) शिक्षक बच्चों की नि यमि तता और शैक्षणिक प्रगति को नि यमि त रूप से पालकों से साझा करते हैं। पालकों और बच्चों से गहन सम्पर्क कि या जाता है। बच्चे के स्कू ल नहीं आने पर शिक्षक बस्ती जाक र पालकों से मि लकर बच्चे के स्कू ल नहीं आने के का रणों को समझते हैं और बच्चे को पढ़ाई से पुनः जोड़ने का प्रयास करते हैं। कई बार बच्चे एक- दो माह के लम्बे अन्तराल तक स्कू ल नहीं आते हैं कि न्तु यदि इसके बाद भी वे पढ़ाई शुरू करना चाहें तो हक से अपने स्कू ल में आते हैं। स्कू ल में हमेशा बच्चों की स्वीकार्य – ता होती है। जब उन्हें पढ़ना होता है तो वे स्कू ल आ जाते हैं।
3) कई बार बच्चे कच रा बीनते-बीनते स्कू ल आ जाते हैं और स्कू ल के बाहर अपना थैला रखकर सीखने की प्रक् रिया में शामि ल हो जाते हैं। स्कू ल में कुछ समय बि ताने के बाद वे अपना थैला लेकर निक ल जाते हैं। का म से थक े बच्चे थोड़ी देर पढ़ाई करने के बाद कोने में सो जाते हैं और अपनी थका न मि टाक र फिर पढ़ाई में शामि ल हो जाते हैं। इसी प्रका र जब बच्चों के माता-पि ता भी कच रा बीनते हुए स्कू ल के करीब से गुजरते हैं तो वे स्कू ल आ जाते हैं और बच्चों से मलकर या कोई कहानी सुनाक र चले जाते हैं। वे इस जगह को अपनी जगह मानते हैं।
लिख ित और मौखिक अभि व्यक् ति के अवसर
कक्षा में ऐसे ज्या दा से ज्या दा अवसर होते हैं कि बच्चे अपने अलग-अलग अनुभवों को लि खकर या बोलकर व्यक्त कर सकें । शिक्षक भी बच्चों की बातों व अनुभवों को सुनते हैं जि ससे बच्चों को खुलकर अपनी बात रखने का प्रोत्सा हन मि लता है। शिक्षक बच्चों द्वारा मौखिक या लिखि त में बताए गए अनुभवों को टाईप करके बच्चे की पाठ्य सामग्री के तौर पर उपयोग करते हैं, जि ससे बच्चों का आत्मवि श्वास बढ़ता है। बच्चों के परिवेश से जुड़ी बातों और उनके अनुभवों को कक्षा में स्थान देना शिक्षण प्र- क्रिया का महत्त्वपूर्ण हि स्सा है। ऐसा करने से बच्चे कक्षा से जुड़ाव महसूस करने लगते हैं और सीखने की प्रक् रिया में उनकी सक्रिय भा गीदारी होने लगती है।
शि क्षण में बच्चों की भाषा को स्थान देना
बच्चों में अपने समुदाय और अपनी पहचान को लेकर गर्व का एहसास हो और वे इससे दूरी न बनाते हुए अपनी वंचि तता को राजनीतिक नजरिए से समझ पाए ँ इस उद्देश्य की प्राप्ति के प्रयासों में से एक प्रयास बच्चों की भाषा ओ ंको कक्षा में महत्त्वपूर्ण स्थान देना है। इसका अर्थ यह है कि बच्चों को क्षेत्रीय भाषा (हि न्दी ) और वैश्विक भाषा (अँग्रेज़ी) सि खाने के लि ए उनकी मातृभाषा को आधार के रूप में प्रयोग कि या जाए।
प्रारम्भिक स्तर पर बच्चों की भाषा व उनके परिवेश के शब्दों का प्रयोग कर लिखि त भाषा से पहचान कराई जाती है व इस प्रक् रिया में छोटे-छोटे वाक्यों या छोटी कहानि यों का प्रयोग कि या जाता है। जैसे— नावा दाई हाटुम ताल मीन तत्तु। यह गोंडी भाषा का वाक्य है जि सका अर्थ है मेरी माँ बाजार से मछली लाई। ऐसा ही एक अन्य वाक्य है— नावा दाई भा री बूता केता जि सका अर्थ है मेरी माँ बहुत का म करती है। शिक्षक इस तरह के वाक्यों को बोर्ड पर लि खकर बच्चों से पढ़वाते हैं और उससे सम्बन्धि त चित्र बनवाते हैं। जैसे उपरोक्त वाक्यों के आधार पर दाई (माँ) का चित्र बनाना इत्यादि ।
चूँकि बच्चों का अपनी भाषा पर अधिका र होता है व उनके पास अपनी भाषा के शब्दों का असीमि त भण्डा र होता है इसलि ए वे अपनी भाषा की समझ के आधार पर कक्षा में सुने वाक्यों से खुद को जोड़ पाते हैं और यह जुड़ाव उन्हें सीखने के लि ए प्रोत्साहि त करता है। वे कक्षा में अपनी भाषा में अपने विचा र व अनुभवों को प्रस्तुत करते हैं। जब कोई बच्चा कि सी विष य को समझने में कठि नाई महसूस करता है तो उसके सहपाठी उसे अपनी भाषा में आसान तरीके से समझा देते हैं। साथ ही बच्चे एक दूसरे की भाषा ओ ंको भी सीखने की कोशिश करते हैं जि ससे बच्चों में एक दूसरे की भाषा के प्रति सम्मा न बढ़ता है और उन्हें सीखने का एक सका रात्मक माहौल मि ल पाता है।
स्कूल में अपनी संस्कृ ति का निर्वह न होते देखकर समुदाय के लोग स्कूल से जुड़ पाते हैं और उनमें सहयोग की भावना वि कसि त होती है।
बच्चे की भाषा को कक्षा में स्थान मि लने से एक तो बच्चों में अपनी भाषा व संस्कृ ति के प्रति सम्मा न का भा व आता है, दूसरा उनकी अभिव्यक्ति का कौशल बढ़ता है, सीखने की गति बढ़ती है और सीखने-सि खाने की गतिविधि में सहभागि ता का स्तर भी बढ़ जाता है। उनमें यह भा व जागता है कि उनकी भाषा भी महत्त्वपूर्ण है और बाहरी दुनि या में उनकी भाषा का भी एक वजूद है इस प्रका र वे स्कू ल से खुद को जोड़ पाते हैं तथा खुद को स्कू ल जाने के लि ए प्रेरित कर पाते हैं।
कक्षा-कक्ष को बच्चों के जीवन और अनुभवों से जोड़ना
बच्चा अधिका ँश चीजें कक्षा के बाहर अपने जीवन के विभ िन्न अनुभवों से सीखता है। अतः बच्चों को कक्षा के बाहर ले जाक र खुद अनुभव करके, परिवेश से अन्तःक् रिया कर सीखने के अवसर उपलब्ध कराना और कक्षा की गतिविधि यों को उनके जीवन से जोड़कर समझाने का प्रयास करना सीखने-सि खाने का एक महत्त्वपूर्ण हि स्सा है। इसके अलावा बच्चों के साथ उनकी जि न्दगी को प्रभावि त करने वाले विभ िन्न मद्ु दों पर चर्चाए ँ भी की जाती हैं जो बच्चों में अपनी व अपने आस-पास की परिस्थिति यों पर प्रश्न करने की क्षमता का विका स करने में सहायक होती हैं। विष यवार पढ़ाई में विभ िन्न अवधारणाए ँ सि खाने के लि ए बच्चों के अनुभवों और समुदाय के अनुभवों को शामि ल कि या जाता है।
बच्चों के अनुभवों में पानी बेचने, कबाड़ बीनने व बेचने, बेल पत्ती बेचने और शादि यों में बत्ती लेकर जाने के दौरान हुए अनुभवों को शामि ल कि या जाता है।
शि क्षण में समुदाय की भागीदारी
समुदाय और स्कू ल का आपसी जुड़ाव जरूरी है ताकि पढ़ने-लि खने की दुनि या, बि ना पढ़े-लि खे लोगों की दुनि या से दूर न हो जाए। इसके लि ए कभ ी-कभा र समुदाय के सदस्य कक्षा में आते हैं और अपनी भाषा में कहानी सुनाते हैं। इन कहानि यों में समुदाय की अपनी यात्रा व इति हास भी शामि ल होता है। वे कभ ी अपने जीवन के कि सी समयका ल की घटना को साझा करते हैं तो कभ ी कोई कौशल। बच्चों की मौलिक अभिव्यक्ति में उनके अभिभा वक उनकी मदद करते हैं। बच्चे अपने अभिभा वकों से कहानि याँ सुनते हैं और फिर उसको कक्षा में आकर सुनाते हैं। इसके अलावा हम समुदाय के लोगों से बात करके बुजुर्गों द्वारा सुनाई जाने वाली कहानि यों को संकलि त करते हैं व उनको बच्चों
की भाषा में अनुवाद करके कक्षा में उपयोग करते हैं। बाल मेलों में भी समुदाय के लोगों की भा गीदारी होती है।
स्कू ल में अपनी संस्कृ ति का निर्व हन होते देखकर समुदाय के लोग स्कू ल से जुड़ पाते हैं और उनमें सहयोग की भा वना विकसि त होती है। इस तरह पालकों के लि ए स्कू ल एक अजनबी जगह नहीं रह जाती, उनमें स्कू ल के लि ए अपनापन विकसि त होता है और वे अपने बच्चों को स्कू ल भेजने के लि ए प्रेरित होते हैं। वे सीखने की प्रक् रिया से खुद को जोड़कर देख पाते हैं। उनके मन से यह भा वना दूर होती है कि वे पढ़ाई-लि खाई के का म में कि सी तरह का योगदान नहीं दे सकते। इस तरह उनका सम्मा न और स्वाभ िमान भी बरकरार रह पाता है और उनका आत्मवि – श्वास बढ़ता है। समुदाय का बच्चों व शिक्षक ों पर भरोसा बच्चों के सीखने और स्कू ल में टिक ने में बहुत ही मददगार होता है। अभि- भा वकों के शिक्षक ों से जुड़ाव का एक उदाहरण एक अभिभा वक द्वारा मुस्कान शिक्षिका से कहा गया यह कथ न है, “हमको तो आप हमारे समाज की ही लगती हैं।”
बच्चों के आपसी रिश्ते
बच्चों के आपसी रिश्ते और दोस्ती (अपने और अपने समुदाय से अलग समुदाय के बच्चों के साथ ) बच्चों के सीखने की प्रक् रिया पर असर डालते हैं। का मका जी बच्चो में पारधी बच्चे ज्या दा कच रा चुनने का का म करते हैं। कई बार अन्य बच्चे इन बच्चों का मजाक बनाने लगते हैं या समूह में उनको शामि ल नहीं करते। इससे ये बच्चे हतोत्साहि त होते हैं, उनका मनोबल टूटता है और वे समूह में सीखने की प्रक् रिया से बचने लगते हैं। समूह में उनकी स्वीकार्य ता के लि ए सायास प्रयास करने की जरूरत होती है।
इन बच्चों को सीखने की प्रक् रिया में शामि ल करने तथा उन्हें कक्षा में खुद को अभिव्यक्त करने के लि ए प्रोत्साहि त करने की जरूरत होती है। बच्चों के साथ लगातार चर्चा और कक्षा में समूह कार्य , अलग अलग बस्ति यों के दौरे सभी बच्चों की कक्षा में स्वीकार्य ता और भा गीदारी को बढाने में बहुत उपयोगी होते हैं। धीरे-धीरे बच्चों में दोस्ती होती है और वे सीखने में एक दूसरे की मदद करने लगते हैं, जि ससे कक्षा में सीखने का समावेशी माहौल निर्मि त हो पाता है।
शि क्षक और बच्चों के आपसी रिश्ते
सीखने-सि खाने की गतिविधि बेहतर तरीके से संचालि त हो सके इसके लि ए कक्षा का माहौल भयमुक्त होना बहुत जरूरी है क्योंकि भय की स्थिति में सीखना कठि न होता है। इसके लि ए शिक्षक और बच्चों के आपसी रिश्ते का अत्यन्त सौहार्द्रपूर्ण होना बहुत जरूरी है। शिक्षक और बच्चों के बीच उनकी व्यक्ति गत जि न्दगी के बारे में भी बातचीत होती है। बच्चों के साथ सर्किल टाइम (गोल घेरे में बैठकर चर्चा करना) में अलग अलग विष यों पर चर्चाए ँ होती है, जैसे— पि छले कुछ समय में आपको अपने आप में क्या बदलाव महसूस हो रहे हैं, अगर आपको अपनी कक्षा के कि सी बच्चे या टीचर को उनके कि सी व्यवहार को ठीक करने के लि ए कोई सुझाव देना हो तो आप क्या सुझाव देंगे?
इसके अलावा बच्चों के परिवार के सदस्यों से बच्चों के रिश्ते पर भी बातचीत होती है, बच्चे अपने विचा र और जीवन की परिस्थि -ति यों को शिक्षक के साथ बेझि झक साझा करते हैं। कई बार जब बच्चे समूह में अपनी बात कहने में सहज महसूस नहीं करते तो शिक्षक अकेले में उनसे बात करते हैं। शिक्षक संवेदनशीलता के साथ बच्चों की बात सुनते हैं और उनको मानसिक सम्ब ल देने का प्रयास करते। इन चर्चाओ ंसे शिक्षक और बच्चों के बीच गहर े रिश्ते बन जाते हैं और बच्चे शिक्षक से खुलकर बात कर पाते हैं। शिक्षक और बच्चों के बीच एक बराबरी का रिश्ता सीखने की प्रक् रिया को बहुत आसान बना देता है। पालकों को उनके बच्चों की प्रगति से अवगत कराने के लि ए शिक्षक प्रति शनि वार बच्चों के घर का दौरा करते हैं और पालकों से मि लकर बच्चों की प्रगति साझा करते हैं।
समुदाय और स्कूल का आपसी जुड़ाव जरूरी है ताकि पढ़ने-लिख ने की दुनि या, बि ना पढ़े-लिख े लोगों की दुनि या से दूर न हो जाए।
शिक्षक अपनी समझ और ज्ञान के साथ साथ बच्चे की समझ और ज्ञान को भी कक्षा में स्थान देते हैं। भाषा -शिक्षण के दौरान जब शिक्षक ों को बच्चों की भाषा समझ नहीं आती तो वे बच्चों से उनकी भाषा सीखते हैं और हि न्दी के वाक्यों को बच्चों की भाषा में अनुवाद करने की प्रक् रिया में बच्चे ही मुख्य भूमिका में होते हैं। इस प्रका र सीखना एकतरफा न होकर दोतरफा होता है। कभ ी बच्चे शिक्षक से सीख रहे होते हैं तो कभ ी शिक्षक बच्चों से। हाशि ए के समुदायों के लि ए
हाशि ए के समुदायों वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगि कता
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था एक खास वर्ग की जरूरतों के अनुरूप तैयार की गई है। कि न्तु हाशिए के समुदायों के ज्या दातर बच्चे आज भी इस व्यवस्था से लगातार छूटते जा रहे हैं। और जो गि ने- चुने बच्चे खुद को इस मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था के अनुरूप ढाल पाए हैं, वे ज्या दातर अपनी जड़ों से दूर जा रहे हैं। मुख्य- धारा की यह शिक्षा-व्यवस्था इन समुदायों के लि ए उपयुक्त नहीं है। स्कू लों में इन बच्चों को जो अनुभव मि लते हैं, जि स शिक्षण सामग्री का प्रयोग कक्षा-कक्ष में कि या जाता है, वह इन बच्चों के लि ए न तो प्रासंगिक है और न ही अर्थपूर्ण । हमें इन समुदायों की आवश्य ताओ ंऔर अनभु वों के अनसु ार शिक्षा-व्यवस्था में मूलभूत बदलाव करने की आवश्यक ता है।
बच्चों के आपसी रिश्ते और दोस्ती (अपने और अपने समुदाय से अलग समुदाय के बच्चों के साथ) बच्चों के सीखने की प्रक् रिया पर असर डालते हैं।
हाशि ए के समुदायों के बच्चों की शिक्षा
सीखने की प्रक् रिया में व्यक्ति का खुद का प्रयास जि तना अहम होता है उतना ही सीखने की जगह का वातावरण और सी- खने-सि खाने की प्रक् रिया भी इस पर असर डालती है। सीखने की प्रक् रिया जि तनी समावेशी होगी, बच्चे सीखने के लि ए उतने ही प्रोत्साहि त होंगे। हाशिए के समुदायों के बच्चों की शिक्षा बेहतर हो पाए इसके लि ए हमें शिक्षण पद्धति यों में बदलाव करने होंगे व पाठ्यक्रम में लचीलापन लाना होगा। स्कू ल को एक ऐसी जगह बनाने की जरूरत है जहाँ बच्चे गर्व से अपनी पहचान, अपने का म और अपने अनभु वों को बता पाए।ँ बच्चे सीखने की प्रक् रिया में आत्मवि श्वास और खुशी के साथ शामि ल हो सकें इसके लि ए कक्षा को बच्चों के जीवन से जोड़ने और उनके जीवन्त अनुभवों को कक्षा कक्ष में लाने की बहुत जरूरत है। स्कू ल की कोशिश होनी चाहि ए कि वह एक बराबरी वाले और बेहतर समाज के निर्मा ण में योगदान दे, हमारा स्कू ल इसी दिशा में एक छोटा सा प्रयास है।
स्रोत
बच्चे की भाषा और अध्यापक, कृष्ण कुमार भाषा शि क्षण— माया मौर्य व सविता सोहित उत्पीड़ितों का शिक्षा शास्त्र— पॉलो फ़्रे रे ब्रजेश वर्तमान में मुस्कान संस्था द्वारा संचालि त स्कू ल जीवन शिक्षा पहल में शिक्षक के रूप में कार्य रत हैं। हाशिए के समुदायों
मुख्यतः आदि वासी, दलि त, वि मुक्त और मुस्लि म समुदायों के बच्चों के साथ सीखने-सि खाने की प्रक् रिया में शामि ल हैं। बच्चों को कहानि याँ सुनाना, उनके साथ खेलना पसन्द है। सवि ता सोहित वर्तमान में मुस्कान संस्था के साथ कार्य रत हैं।शिक्षक के रूप में का म की शुरुआत की। बहुभाष ीय कक्षा लेने और बच्चों के साथ भाषा के नि यमों को समझने और उनका वि श्लेष ण करने में खास रुचि है।
Source: https://issuu.com/wiprofoundation/docs/samuhik_pahal_vol_2_issue_5