हमेशा से ही एक ‘कम’ नागरिक

By Brajesh Verma

गाँधी नगर में एअरपोर्ट के पास एक खेत में घुमुन्तु एवं विमुक्त जनजाति के कुचबंदिया समुदाय के लगभग 60 परिवार अपनी झुग्गी बनाकर रह रहे है| डेरे में लगभग 400 लोग हैं| इनके डेरे में बच्चे और बुजुर्ग महिलाऐं भी हैं| ये समुदाय जिला शिवपुरी, मध्यप्रदेश और जिला बारां व जिला कोटा, राजस्थान के रहने वाले हैं| ये मुख्यतः फेरी लगाकर हल्दी, मिर्च और धनिया व अन्य मसाले बेचने का धंधा करते हैं व कुछ लोग फेरी लगाकर कम्बल बेचने का काम भी करते है| ये लोग हर साल इस समय अपने डेरे लेकर कमाने खाने के लिए निकल जाते है| लॉक डाउन के कारण यहाँ फ़स गए हैं| वे अत्यंत ही कठिन परिस्थितियों में रह रहे है, इनके पास न तो पीने के पानी की व्यवस्था है और न ही खाने के लिए राशन है और ना ही पैसे हैं| आसपास मांगने जाते है तो भी कुछ नहीं मिलता, क्योंकि लोगों के पास भी कुछ नहीं है जो इनको कुछ दे दें| जब वे लोग आसपास की बस्तियों में पानी लेने जाते है तो बस्ती के लोग भी बीमारी के डर से पानी लेने नहीं देते और भगा देते हैं| लॉक डाउन के 28 दिन में नगर निगम से 2-3 बार पानी का टैंकर आया है नहाने का तो छोडो, पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है| डेरे के बच्चों को  कच्ची खिचड़ी खाकर, जो किसी समूह ने दी थी, पेट दर्द की समस्या हुई हैं|

जाड़ू कुचबंदिया आदिवासी ने बताया कि “जब हम किसी शहर में अपना डेरा डालते हैं तो हमें अपनी मुसाफिरी नजदीकी थाने में लिखवानी होती है, हमें अपने देश में ही एक जगह से दुसरे जगह जाने पर इसकी सूचना सरकार को देनी होती है, हमें हमेश संदेह से देखा जाता है| हम लोग यहाँ फसे हुए है इसकी जानकारी सरकार को भी है, हमने कलेक्टर ऑफिस में और SDM दफ्तर में अपनी मुश्किलें बताई, हमने उनसे विनती की कि हमें राशन नहीं तो घर ही पहुँचाने की व्यवस्था कर दीजिए, हमने उन्हें बताया कि हमारे डेरे में बड़ी संख्या में बच्चे और बुजुर्ग महिलाएं हैं लेकिन वहां से हमें कोई मदद नहीं मिली| SDM साहब ने कहा कि ‘हम कुछ नहीं कर सकते’, अब सरकार ही हमारी नहीं सुनेगी तो हम अपनी समस्या लेकर किसके पास जाएं? हमारे लिए खाने का इन्तेजाम करना सरकार की ज़िम्मेदारी है, लेकिन हम यहाँ भूखे पड़े हुए है|

गंगा कुचबंदिया ने बताया कि “जिन लोगों के पास आधार कार्ड हैं उन्हें नवरात्री के समय 5 किलो आटा सरकार की तरफ से मिले लेकिन बिना आधार वालों को वो भी नहीं मिला| गरीबों को राशन देने में आधार कार्ड की अनिवार्यता गरीबों के साथ एक मजाक लगता है|” इस मुश्किल घडी में भी सरकार कागज़ मांग रही है, सरकार की नज़र में इंसान की कोई कीमत नहीं, असल कीमत तो कागज़ की है| लोग चिल्ला चिल्ला कर कह रहे की हम भूंखे है लेकिन सरकार कागज़ मांग रही है| लोगों को ये राशन मिले भी 20 दिन हो गए, बैरागढ़ से सिन्धी लोगों ने एक बार 4 किलो आटा और 1 किलो चावल दिया लेकिन फिर कोई नहीं आया| मेहनतकश मजदूर की खुराक भी ज्यादा होती है, इतना राशन कितने दिन खाएंगे| बच्चे दूध की जिद करते हैं लेकिन पैसे ही नही है कि उन्हें खरीद कर पिला दें| कोई भी गाडी गुजरती तो यही लगता कि शायद कोई खाना लेकर आ रहा होगा और रोड की तरफ दौड़ने लगते हैं| इतना असहाय अपने आप को कभी नहीं पाया”|

सौरभ कुचबंदिया आदिवासी ने कहा “कि मेरा राशन कार्ड शिवपुरी का है, मैं 4-5 बार कण्ट्रोल (PDS) की दुकान गया, 8 लोगों का कूपन, समग्र आईडी भी दिखाई लेकिन राशन नहीं मिला| उसी तरह अनीता के पास भी राशन कार्ड है लेकिन उन्हें भी राशन नहीं दिया”| 

जब सरकार कहती है कि हमारे गोदामों में पर्याप्त भण्डार है, किसी को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा, तो फिर ज़रूरतमंद तक राशन क्यों नहीं पहुँच पा रहा, क्या सरकार के पास ज़रूरी संसाधनों व ढांचे की कमी है या सरकार की मंशा नहीं है|

सुरेश कुचबंदिया ने बताया कि “माँ कोटा में है, वे वहां अकेली है, पिता जी की मौत हो चुकी है, ब्लड प्रेशर की मरीज है, काम धंधा नहीं है, उनको पैसे भी नहीं पंहुचा पा रहे, उनके पास दवाई खरीदने के भी पैसे नहीं है, माँ की बहुत चिंता हो रही है”| गंगा बाई 55 वर्ष कोटा से है वे अपने बेटे जीवन के साथ यहाँ है, बच्चे कोटा में है| फ़ोन पर बात करते हैं तो बच्चे रोते है, घर आने का कहते है, लेकिन हम जा नहीं सकते| डेरे में रह रहे सभी लोग इसी तरह की मुश्किल में हैं|

जाड़ू कुचबंदिया कहते है कि “हमारे डेरे में बहुत सारे बच्चे और बुजुर्ग महिलाएं हैं जो इतना लम्बी दूरी पैदल भी नहीं चल सकते नहीं तो हम पैदल ही निकल चुके होते, हमारी सरकार से यही गुजारिश है कि भले हमें खाने का राशन ना दे लेकिन हमें अपने घर पहुंचा दे, यही बहुत बड़ी मेहरबानी होगी, घर से अच्छा कुछ नहीं”|

हम आए दिन अखबारों में पढ़ रहे है कि सरकार अमीरों और विदेशों में या देश के बड़े शहरों में पढ़ रहे उनके बच्चों की बहुत चिंता कर रही है, उनको हवाई जहाज से या वातानुकूलित बसों में बैठाकर उनके घरों तक पंहुचा रही है और अपनी पीठ थपथपा रही है| इन ख़बरों को को न्यूज़ चेनल वाले भी बहुत जगह दे रहा है| वही इन घुमंतू समुदायों व विमुक्त जातियों की कोई फ़िक्र करने वाला कोई नहीं है| दिहाड़ी मजदूर विभिन्न शहरीं से पैदल ही अपने घरों के लिए जाने को मजबूर है, कई तो रस्ते में ही अपनी जिदंगी गवां चुके हैं, लेकिन इन ख़बरों से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, इनकी स्थिति को बताने के लिए न्यूज़ चेनल वालों के पास ज्यादा समय नहीं| क्या ये लोग देश के नागरिक नहीं? क्या इनके वोट की कीमत अमीरों के वोट से कम है? क्या इनके डेरे में रह रहे बच्चों के कोई बाल अधिकार नहीं? जब चुनाव होते है तो ये लोग, चाहे देश के किसी भी कोने में हो, अपने सभी कामों और कमाई को छोड़कर, बहुत सारा पैसा खर्च करके अपना वोट डालने अपने शहर-गाँव जाते है और देश के एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के अपने कर्तव्य का निर्वाह करते है, तो फिर सरकार इनके प्रति इतनी उदासीन और असंवेदनशील कैसे हो सकती है? क्या सरकार की इनके प्रति कोई जवाबदेही नहीं बनती? 

जब संविधान की नज़र में सभी सामान है, सबका साथ सबका विकास का नारा बुलंद है तो फिर राहत पहुँचाने में इन लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव क्यों? लोकतंत्र में “जनता का शासन, जनता के द्वारा और जनता के लिए” एक शिगूफा ही प्रतीत होता है असल में यह पूंजीपतियों का शासन, पूंजीपतियों के द्वारा, पूंजीपतियों के लिए ज्यादा सटीक बैठता है| 

 

यह लेख ब्रजेश वर्मा ने लिखा है| ब्रजेश वर्मा को इस कच्ची बसाहट की जानकारी गाँधी नगर के बस्तीवासियों से मिली| वहाँ रहनेवाले मंगल और अफसाना को चिंता थी कि हमारी बस्ती में ये लोग भीख माँगने आते हैं और हम कुछ दें नहीं पाते|

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